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तृष्णा (कविता )

Lekhani
Lekhani
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अकेलेपन की मुझको आदत नहीं
पर अकेले रहना बन गई है फ़ितरत मेरी

भीड़ से बचने की चाहत नहीं
पर तन्हाईयाँ मुझको भाने लगी हैं

रिश्तों की जिंदगी में कमी नहीं
पर सबका प्यार मेरे नसीब में नहीं

खुशियाँ तो बहुत मिली जिंदगी में
पर गम भी मुझसे जुदा नहीं

हर ख्वाहिश को मंजिल मिली
पर अधूरी तमन्नाओं की कमी नहीं

पूरी हुई है हर ख्वाहिश
पर मन की तृष्णा बुझी नहीं

जिंदगी में दोस्त तो अनगिनत मिले
पर नकाबपोश दुश्मनों की भी कमी नहीं

लुभाती है जिंदगी की रंगीनियां
पर श्वेत-श्याम ही बन गई है मेरी संगिनियां

हसीन लगती है अपनी सपनों की दुनिया
पर मेरी दुनियावालों क अपना एक जहाँ है

रास्ते की मुश्किलों को पार कर खुश होता है मन मेरा
पर दुविधाओं से बचने को चाहता है दिल मेरा

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