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ओके, हिंदी फिर मिलेंगे………….

Lekhani
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हिंदी ,हिंदी जरा रुको तो ,कहाँ जा रही हो । मेरे जाने का समय हो गया है ,अब और नहीं रुक सकती। एक हफ्ते से ऊपर हो गया है मुझे आये ,अब रुकना ठीक नहीं ,अभी तक अखबारों में  इक्का-दुक्का खबरें मेरे बारे में आ रही थी ,पढ़कर अच्छा लगता था कि चलो अभी भी लोग मुझे याद करते हैं पर अब तो अखबारी पन्नों  पर भी मेरी यादें धूमिल पड़ गई हैं । विश्व हिंदी सम्मलेन और हिंदी दिवस के लिए मेहमान  बन कर आई थी और मेहमान समय से चला जाये वही उसके और मेजबान दोनों के लिए अच्छा होता है ,ज्यादा दिन रहने वाले मेहमान की  इज्जत नहीं होती है और वह मुझे कतई  मंजूर नहीं है .वैसे मुझे किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं है । विश्व हिंदी सम्मलेन का आयोजन आखिर मेरे लिए ही तो किया गया था । सब कुछ कितने अच्छे से निपट गया और फिर हर साल हिंदी दिवस पर मुझे कितना सम्मान मिलता है ,तो फिर क्या हुआ अगर यह सब बस एक पखवारे तक ही सिमट जाता है । कम से कम इसी बहाने तत्कालीन वर्तमान पीढ़ी  हिंदी के इतिहास से अवगत तो हो जाती है । वैसे आजकल हिंदी ब्लॉगिंग में  लोगों का रुझान बढ रहा है जिसका श्रेय काफी हद तक गूगल को भी जाता है जिसने हिंदी फॉण्ट को लिखना आसान कर दिया है और हिंदी ब्लॉगर्स को एक सुविधाजनक मंच प्रदान किया पर ज्यादातर लोग सिर्फ हिंदी लिखने के बजाय हिंदी तथा इंग्लिश  की मिलीभगत हिंग्लिश को प्रधानता देते हैं क्योंकि शुद्ध हिंदी न कोई लिखना चाहता है और न  ही  पढना ।

कबीर जी के दोहे के तर्ज पर ,

“ऐसी वाणी लिखिए मन का सब कुछ जाए बोल ,

औरन को समझ आए ,आपहुं निरंतर लिखत जाए ”

अर्थात , आप ऐसी भाषा में अपने विचारों को लिखिए जिसके द्वारा आप सब कुछ सुविधापूर्वक व्यक्त कर सके और पाठक को अच्छी तरह समझ में भी आए ,जिससे आप के लिखने में निरंतरता बनी रहे ,कहने का तात्पर्य यह है कि मेरा वजूद कायम है पर मेरी मौलिकता को विकृत करके .

मैं देश कि राष्ट्रभाषा हूँ ,देश की गरिमा और अस्मिता का प्रतीक हूँ । यह बात मेरे लिए काफी गौरान्वित है पर अपने ही देश के दफ्तरों  में हिंदी की  बदहाली मुझे तकलीफ देती है जबकि विदेशों में हिंदी सीखने और पढने के प्रति लोगों में उत्साह है । विश्व के करीब १५० ( 150 ) विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा पढाई जाती है और उस पर शोध भी होतें हैं । सबसे दुखदपूर्ण बात तो यह है कि प्रसिद्ध अंग्रेजी विद्यालयों में हिंदी बोलने पर बच्चों से शुल्क भी लिया जाता है । यहाँ हिंदी विषय तो पढाया जाता है परन्तु सिर्फ औपचारिक रूप से ही उसकी शिक्षा दी जाती है । हिंदी में यदि कवि परिचय देना है तो उनके जन्म व मृत्यु का सन् शिक्षिका द्वारा अंग्रेजी में ही बताया जाता है और यदि उच्चारण हिंदी में बता भी दिया गया तो लिखने की विधि अंग्रेजी ही रहती है . अब भला ऐसी स्थिति में बच्चे हिंदी कैसे सीखेंगे । इसके लिए शिक्षिकाओं को भी कहाँ तक दोषी माने , आखिर वह भी तो अंग्रेजी विद्यालयों से हिंदी का वही स्वरूप सीखी रहती हैं । खैर अब मैं चलती हूँ ,काफी वक्त हो गया है ,इन  यादों को सहेजना भी तो है और पत्र-पत्रिकाओं तथा ढ़ेरों अखबार की प्रतियाँ संभालते हुए चहरे पर संतोष का भाव लिए हिंदी चली गई ।ओके हिंदी फिर मिलेंगे ,मैं बस यही कह पाई । मैंने उसे रोका जरुर था पर कुछ बोल ही नहीं पाई क्योंकि उसकी सटीक बातों ने मेरी बोलती ही बंद कर दी लेकिन आश्चर्य तो मुझे इस बात पर हो रहा था कि उसके चहरे पर कितना संतोष था ,ऐसा नहीं है कि वो अपनी स्थिति से बहुत खुश थी लेकिन फिर भी उसने समयानुसार परिवर्तन को अपनाया । अब समझ आया कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा क्यों है ? सर्वोपरि वही होता है जो सबसे उत्तम हो और हिंदी से बेहतर कौन है ,जो विपरीत परिस्थितियों में भी सामंजस्य बनाये हुए है ।

मेरे जेहन में इकबाल जी द्वारा लिखित देशभक्ति के गीत की पंक्ति गूंजने लगी…………..हिन्दी हैं हम वतन हैं, हिन्दोस्ताँ हमारा………………..

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